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छत्तीसगढ़ में विकास के प्रभाव से हसदेव अरण्य में हाहाकार


कहते हैं ना विकास करने और होने से जीवन में कई तरह के बदलाव आते हैं और ऐसे में भविष्य भी विकास की ओर ही अग्रसर होती है। नए टेक्नोलॉजी से रोजगार बढ़ने की आशाएं बढ़ी हैं। भारत एक विकासशील देश से धीरे धीरे विकसित देश की ओर अग्रसर हो रहा है। विकास से ही संघर्षरत जीवन एक सुविधापूर्ण, शैक्षिक और शांतिमय जीवन में तब्दील हो जाता है।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी और उनके जल - जंगल - जमीन 
विकास को लेकर ही छत्तीसगढ़ का एक मामला काफी चर्चों पर चल रहा है। हसदेव अरण्य जोकि उत्तरीय छत्तीसगढ़ का विशाल प्राचीन अरण्य है। यहां की पहचान आदिवासी और उनके वनों से होती है। आदिवासी और उनके वनों का बहुत ही पुराना और गहरा रिश्ता है। ये वन आदिवासियों के जीवन शैली से जुड़ी हुई है। लेकिन अब 2022 से इन वनों के  पक्षियों की चहचहाहट और पशुओं का शोर एक ऐतिहासिक कहानियों के किताबों में दबकर रह जाएंगी। क्योंकि अब यहां वाहनों और मशीनों के शोरगुल से यहां का जंगल लुप्त होने जा रहा है। 

आदिवासियों का जीवन इतना साधारण और सोबर होता है कि इन्होंने कभी भी विस्थापन और विकास की उम्मीदें और मांग नहीं की। वे अपने जंगलों में परंपरागत तरीकों से रहना पसंद करते हैं। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके नाउम्मीदी वाले सपने उनके जीवन को उथल-पुथल कर देंगे।

जानें क्या है विवाद? 
छत्तीसगढ़ के उत्तरीय भाग का यह जंगल छत्तीसगढ़ी ही नहीं बल्कि मध्य भारत का एक समृद्ध जंगल है। जो मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के जंगलों को झारखंड के पलामू के जंगलों से जोड़ता है। साथ ही यह वन 25 अन्य महत्वपूर्ण वन्य प्राणियों का रहवास और उनके आवाजाही के रास्ते का भी क्षेत्र है। 

लेकिन छत्तीसगढ़ की सरकार ने 6 अप्रैल 2022 को एक प्रस्ताव पर मंजूरी दे दी है। इस प्रस्ताव के तहत हसदेव क्षेत्र में स्थित परसा कोल ब्लॉक, परसा ईस्ट और केते बासेन कोल ब्लॉक का विस्तार होगा।

कई अनुमानों के अनुसार इस क्षेत्र में लगभग 5 अरब टन का कोयला मौजूद है। इसी वजह से यह खनन का क्षेत्र बन गया है। हसदेव वन को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 2010 में खनन के लिए No - go - zone घोषित कर दिया था और इसे 2011 में रद्द भी कर दिया गया था। 2013 में परसा ईस्ट, केते और बसेन क्षेत्र को अडानी ग्रुप द्वारा सौंप दिया गया। एक तरह से देखा जाए तो हसदेव के कोयला खदान का क्षेत्र राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित है। 

सरकारी अनुमान के मुताबिक हसदेव क्षेत्र में कोल ब्लॉक के विस्तार के लिए 2लाख से साढ़े चार लाख तक के पेड़ काटे जा सकते हैं। यह विवाद हसदेव बचाओ आंदोलन तकरीबन एक दशक से चला आ रहा है। आज कोयले खनन की वजह से यह क्षेत्र के रहवासियों से जानवरों तक खतरे में है। क्या वन संपदा और प्राकृतिक संपदा का कोई और विकल्प नहीं हो सकता? कोयले के लिए इन सब चीजों का बलि चढ़ाना प्रशासन का गलत निर्णय बताया जा रहा है। 

ग्राम सभा और प्रशासन की झूठी स्वीकृति
स्थानीय लोग जंगल बचाओ का प्रदर्शन कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर #hasdeobachao का नारा चल रहा है। लोग अलग-अलग तरीकों से अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। कई लोग पेड़ों से लिपटकर चिपको आंदोलन जैसा पेड़ों के बचाव की कोशिश कर रहे हैं तो कुछ पैदल मार्च और धरना प्रदर्शन कर रहे हैं।

जब परसा खदान की शुरुआत हुई थी। उस वक्त परसा क्षेत्र में केते गांव उजड़ने वाले थे और उस वक्त बसेन, घटबर्रा और सालही गांव से जनसमर्थन के लिए कंपनी द्वारा गांववासियों को बुला लिया गया था। ये तीन गांववासियों ने देश के विकास के लिए इतना क्षेत्र देकर किसी और गांव में विस्थापन करने के लिए तैयार हो गए थे। 

लेकिन उन्हें क्या पता था कि अडानी कंपनी बड़े पैमाने पर यहां के जमीनों की खरीदी बिक्री कर रही है और इन चीजों का ग्राम वासियों को कोई भी जानकारी नहीं थी। झूठी और फर्जी ग्राम सभा को तैयार कर प्रशासन ने स्वीकृति ले ली थी। जिसकी जानकारी ग्रामीणों को उस वक्त नहीं थी। ग्रामवासियों को केवल इतना पता था कि यहां खदान खुलने वाले हैं। लेकिन इस प्रस्ताव को मंजूरी देने के लिए ग्रामीणों की सहमति अनिवार्य है। बावजूद इसके छत्तीसगढ़ प्रशासन और अदानी कंपनी अनसुना कर कोल ब्लॉक के विस्तार के लिए मंजूरी दे दी।
ग्रामवासी उनके इस खदान खोलने की प्रक्रिया से बिलकुल भी अवगत नहीं थे।
 
जैसे:
-खदान खोलने की क्या प्रक्रिया है? 
-बंद स्वीकृति की क्या प्रक्रिया है?
-भूमि अधिग्रहण की क्या प्रक्रिया है?
-पर्यावरण स्वीकृति की क्या प्रक्रिया है? -ग्राम सभा से अनिवार्य सहमति हो उसकी स्वीकृति मिलने की क्या प्रक्रिया है?
यह सभी प्रक्रियाओं का उस समय समुदाय वालों को जानकारी नहीं थी। 

प्रशासन और कंपनी द्वारा गांव वालों से कहा गया था कि जमीन का मुआवजा मिलेगा और उनको नौकरी भी दी जाएगी।  खदान के काम शुरू होने के बाद पता चला कि इनके क्षेत्रों में 14 खदानों का काम शुरू हो रहा है और इन खदानों को खोलने के लिए इनके जंगल का भी एक बहुत बड़ा क्षेत्र लिया जा रहा है। गांव के गांव इनके जंगल भी खत्म होने वाले हैं। इनका हसदेव क्षेत्र पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। 

क्या प्रशासन और अडानी ग्रुप के पास विकास और आवश्यकता के लिए कोल माइनिंग के अलावा कोई और विकल्प नहीं था?

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1 Comments

  1. Aapne hasdev abhiyan par likh kr ek pehle ki jise Syd sabhi dekhe or kuch kadam uthaye forest bachaaye

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