हम बात तब की कर रहे हैं जब 15 अगस्त 1947 की सुबह भारत का भौतिक स्वरूप अलग ही था। उस समय हमें आजादी मिली थी, लेकिन देश के कई इलाके ऐसे भी थे जो 15 अगस्त 1947 को भारत का हिस्सा नहीं थे। लेकिन ये इलाके अब भारतीय संघ का अभिन्न अंग हैं। भारत के इस एकीकरण के पीछे लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की कूटनीति और पंडित नेहरू की दूरदर्शिता है।
हैदराबाद
15 अगस्त 1947 के आसपास हैदराबाद की आबादी 1 करोड़ 60 लाख थी। हैदराबाद एक समृद्ध रियासत थी और निज़ाम को इस रियासत से सालाना 26 करोड़ रुपए की आय होती थी। तब निज़ाम मीर उस्मान अली हैदराबाद पर शासन कर रहे थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या खुद को एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य के रूप में स्थापित करने का विकल्प दिया। नवाब चाहते थे कि हैदराबाद ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बने। लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे अस्वीकार कर दिया। 15 अगस्त 1947 को हैदराबाद के बिना भारत स्वतंत्र हो गया।
पटेल किसी भी हालत में हैदराबाद को भारत से अलग करने के पक्ष में नहीं थे। निज़ाम को जनमत संग्रह की पेशकश की गई, लेकिन 85 प्रतिशत हिंदू आबादी पर शासन कर रहे निज़ाम ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। 9 सितंबर 1948 को भारत ने फैसला किया कि हैदराबाद में सैन्य कार्रवाई के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सेना की दक्षिणी कमान को सूचित किया गया कि उन्हें 13 सितंबर (सोमवार) की सुबह हैदराबाद में प्रवेश करना है। 4 दिनों तक चले सशस्त्र संघर्ष के बाद आखिरकार 17 सितंबर 1948 की शाम को हैदराबाद की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। 18 तारीख को मेजर जनरल चौधरी के नेतृत्व में भारतीय सेना शहर में दाखिल हुई। कुल मिलाकर यह ऑपरेशन 108 घंटे तक चला और हैदराबाद भारत का अभिन्न अंग बन गया।
कश्मीर
15 अगस्त 1947 को कश्मीर एक रियासत थी, जिसके हिन्दू राजा डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह थे। रियासत की लगभग तीन-चौथाई आबादी मुस्लिम थी। इस रियासत की रियाया का पाकिस्तान के साथ माल-सामान का लेन-देन था। महाराजा हरि सिंह भारत और पाकिस्तान के साथ एक स्थायी समझौता करना चाहते थे। उस समझौते का उद्देश्य उन्हें भारत या पाकिस्तान में विलय के लिए कुछ और समय देना था। पाकिस्तान की नज़र जम्मू-कश्मीर पर थी।
24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान के कबायली लड़ाकों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। इन लड़ाकों को पाकिस्तानी सेना का समर्थन प्राप्त था। कबायली श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे, महाराजा हरि सिंह चिंतित थे, उनकी सेना कबायलियों का सामना करने में सक्षम नहीं थी। महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद मांगी।
भारत सरकार सैन्य मदद देने के लिए तैयार थी लेकिन भारत ने कहा कि हरि सिंह को जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करना होगा। महाराजा हरि सिंह ने विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किए और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया। भारत सरकार को जब पता चला तो दिल्ली में हलचल तेज हो गई। गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल तुरंत इस मिशन में जुट गए। भारत सरकार ने जूनागढ़ को ईंधन और कोयले की आपूर्ति बंद कर दी। भारतीय सेनाओं ने मंगरोल और बाबरियावाड़ पर नवाब का नियंत्रण छीन लिया। भारत की सख्ती और लोगों का मूड देखकर यहां का नवाब कराची भाग गया। 20 फरवरी 1948 को जूनागढ़ में जनमत संग्रह हुआ, जिसमें 91 फीसदी लोगों ने भारत में विलय के पक्ष में वोट दिया।
गोवा, दमन दीव, दादर और नगर हवेली
भारत में समुद्र की रोमांटिक खूबसूरती दिखाने वाले गोवा को भी 15 अगस्त 1947 को आजादी नहीं मिली थी। भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के जरिए अंग्रेजों ने अपने कब्जे वाली जमीन भारत को सौंपने का ऐलान किया, लेकिन उस समय भारत के कुछ हिस्से पुर्तगाल के कब्जे में थे। गोवा 1510 से ही पुर्तगालियों के कब्जे में था। पुर्तगाल का तर्क था कि जब उन्होंने गोवा पर कब्जा किया था, तब भारत गणराज्य अस्तित्व में नहीं था। अब भारत के सामने सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प था। उस समय दमन दीव भी गोवा का ही हिस्सा था। 2 अगस्त 1954 को गोवा की राष्ट्रवादी ताकतों ने दादर नगर हवेली की बस्तियों पर कब्जा कर लिया और भारत समर्थक स्थानीय सरकार की स्थापना की। 1961 में दादर नगर हवेली को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया। इसके बाद पुर्तगाल द्वारा शासित शेष क्षेत्रों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए गए।
इधर दादर और नगर हवेली को छीनने के बाद पुर्तगाली भड़क गए। पुर्तगाल ने अफ्रीकी देशों अंगोला और मोजाम्बिक से और अधिक सैनिकों को बुलाया। गोवा, दमन और दीव में 8000 यूरोपीय, अफ्रीकी और भारतीय सैनिक तैनात किए गए। दिसंबर 1961 में भारत ने ऑपरेशन विजय शुरू किया। पुर्तगाल को शांतिप्रिय भारत से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी; 19 दिसंबर 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर मनु वासालो दा सिल्वा ने भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
पुदुचेरी
स्वतंत्रता के समय गोवा-दमन दीव, दादरा और नगर हवेली पुर्तगाल का हिस्सा थे जबकि पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) एक फ्रांसीसी उपनिवेश था। आजादी के बाद नेहरू ने पांडिचेरी को भारत में शामिल करने की कोशिश शुरू की। पुडुचेरी के अलावा कराईकल, माहे और यनम भी फ्रांस के नियंत्रण में थे। 1954 में पुडुचेरी में माहौल बिगड़ने लगा। यहां भारत में विलय के लिए व्यापक आंदोलन हुआ। 18 अक्टूबर 1954 को पुडुचेरी और कराईकल के स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों ने जनमत संग्रह में हिस्सा लिया। इनमें से 170 सदस्यों ने भारत में विलय के लिए भारी बहुमत से सहमति जताई। तीन दिन बाद भारत और फ्रांस के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
मई 1962 में फ्रांस की संसद में पुडुचेरी की सत्ता औपचारिक रूप से भारत को हस्तांतरित करने का प्रस्ताव पारित हुआ। 16 अगस्त 1962 को पुडुचेरी की सत्ता का औपचारिक हस्तांतरण भारत और फ्रांस के बीच हुआ। सिक्किम भारत गणराज्य की पूर्ण स्वतंत्रता का एजेंडा सिक्किम को भारत में शामिल किए बिना अधूरा था। 15 अगस्त को जब देश आजाद हुआ तो सिक्किम हमारे साथ नहीं था। तब यहां राजशाही थी। चोग्याल यहां शासन करते थे, वे सिक्किम के लिए भूटान जैसा दर्जा चाहते थे। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद भारत को यह एहसास होने लगा कि सिक्किम को भारतीय गणराज्य में मिलाना भू-राजनीतिक ज़रूरत बन गई है। उस समय देश की पीएम इंदिरा गांधी थीं।
6 अप्रैल 1975 की सुबह 5000 भारतीय सैनिकों ने सिक्किम में चोग्याल के महल को घेर लिया। सेना ने महल में मौजूद 243 गार्डों पर जल्दी और आसानी से काबू पा लिया। चोग्याल को उनके महल में ही नजरबंद कर दिया गया। इसके बाद सिक्किम में जनमत संग्रह हुआ। जनमत संग्रह में 97.5 फीसदी लोगों ने भारत के साथ जाने का समर्थन किया। सिक्किम को भारत का 22वां राज्य बनाने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पारित हुआ।
15 मई 1975 को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर किए और सिक्किम भारत का हिस्सा बन गया।
मणिपुर-त्रिपुरा
15 अगस्त 1947 को मणिपुर भी पूरे भारत का हिस्सा नहीं था। ब्रिटिश राज के दौरान मणिपुर एक रियासत थी। जिसका क्षेत्रफल 21,900 वर्ग किलोमीटर था। आजादी के समय मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह ने 1949 तक विलय पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। मणिपुर का अपना संविधान भी था। लेकिन भारत सरकार ने इस संविधान को मान्यता नहीं दी।
इधर मणिपुर में चुनाव की मांग जोर पकड़ने लगी। मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र ने जून 1948 में राज्य में चुनाव करवाए। भारत के मणिपुर
विलय की बात करें तो विधानसभा में इसको लेकर काफी मतभेद था। इसी बीच स्थिति यह हो गई कि सितंबर 1949 में भारत सरकार को
मणिपुर की विधान सभा से परामर्श किए बिना ही विलय पत्र पर महाराजा बोधचंद्र को हस्ताक्षर करने पड़े। यह विलय 15 अक्टूबर 1949 को हुआ।
त्रिपुरा का भारतीय संघ में विलय 15 नवंबर 1949 को हुआ। 17 मई 1947 को त्रिपुरा के अंतिम महाराजा बीर बिक्रम सिंह की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी महारानी कंचनप्रभा ने त्रिपुरा राज्य की बागडोर संभाली। उन्होंने त्रिपुरा राज्य के भारतीय संघ में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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